Wednesday, 29 April 2020

मेरा बिखरा घर और मैं।



कुछ  भिखरा  घर  मेरा  मुझसे  शिकायत  करता  है

कब  समेटोगे  मुझे  ये  पूछता  रहता  है।

दीवारों  और  मेरे  आलावा  रहता  नहीं  यहाँ  कोई  अब

कभी  मैं  रोता  कभी  घर  मुझे  देखकर  रोता  रहता  है।



कुर्सी  और  मेज़  मुझे  घूरती  रहती  है

कब  कोई  और  बैठेगा  इनपर  अक्सर  सोचती  रहती  है।

बर्तनो  ने  अब  खनकना  छोड़  दिया  है

अब  न  खुलेगा  वो  खुशियों  की  देहलीज़  पर  दरवाजेने  बोल  दिया  है।



हवा  आज  भी  खिड़की  से  मिलने  आती  है

कोई  नहीं  रहता  यहाँ  अब  सुनकर  चली  जाती  है।

घडी  वक्त तो  बताती  है

पर  यादो  में  आज  कल  वो  अकेले  डूबती  जाती  है।



फर्श  ने  बात  करना  छोड़  दिया  है  मुझसे  अब

छत  चुप  है  जानकार  सब।

अजीब  सा  रिश्ता  हो  गया  है  मेरा  मेरी  चुप्पी  से

वो  भी  कभी  कभी  पूछती है  बोलोगे  कब  किसी  से ।



कुछ  भिखरा  घर  मेरा  मुझसे  शिकायत  करता  है

कब  समेटोगे  मुझे  ये  पूछता  रहता  है।

दीवारों  और  मेरे  आलावा  रहता  नहीं  यहाँ  कोई  अब

कभी  मैं  रोता  कभी  घर मुझे  देखकर  रोता  रहता  है।



- Kunal The Poet - Kunal Dhiren Patrawala 

1 comment:

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